Friday, June 8, 2012

कितना रोऊं


न जाने अब कब रुकेगी
ये आंसुओं  कि धारा
कब रोऊं कैसे रोऊं
किस पर रोऊं
खुद पर या खुद की किस्मत पर
चाहत है कि आज इतना रोऊं
की उसमें तेरी सारी यादों को खोऊं
पर ये कहना तो बहुत आसान है
और अमल करना उतना ही मुश्किल
क्यों नहीं दिखते मेरे ये आंसू
उनको जो मेरे लिए सबसे अनमोल हंै
जो मेरे सब से करीब हैं
जो हमेशा मेरे पास साए की तरह रहते हैं
जो मुझे इस धरती पर लाएं हैं
क्या दर्द को किसी रूप की जरूरत है
क्यों भूल गई है मेरी मां
जब बिन बोले उसने मुझे आंचल में छुपाया था
जब बिन बोले मुझे एक निवाला खिलाया था
जब बिन बोले मेरी ही चोट पर मरहम लगाया था
या फिर जब पापा की डांट के बाद
अपने पास बुलाया था
तब तो दर्द को किसी भी रूप की जरूरत नहीं थी

5 comments:

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  2. बहुत ही उम्दा... दोस्त, शब्दों ने धार पकड़ ली है, लगे रहो!!!

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  3. आंसू गम के झरते हैं जब, तो रुमाल यादों का हाथ में होता है
    आंखे सूज जाती हैं जब, तब आईना हकीकत दिखा देता है

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